अपनों का ग़म
- Vivek Pathak

- 16 मई
- 1 मिनट पठन
अचानक टूट के, बिलख के रो पड़ना,
भरे बाज़ार में भी वीराना सा लगना l
जिसके बिना अब, कोई अपना नहीं लगता,
जिसके बिना हर सुख, बेमानी सा लगता l
वो तो चला गया हमेशा के लिए,
फ़िर ये टीज, क्यों उठती रहती है l
हर रंग शायद उससे ही था,
इसीलिए अब सब, बेरंगा सा लगता है l
थीं तुमसे बहुत शिकायतें, अब भी हैं,
थीं तुमसे बहुत शिकायतें, अब भी हैं,
शिकवों को लगके गले, है मिटाया जाता,
पर मुंह मोड़ के यूँ , न कभी, है जाया जाता l
अगर एक मौक़ा और मिले,
मिटा के ख़ुद को, तुम्हें आबाद कर दूँ,
तुम आजाओ वापस चाहे मैं विदा हो जाऊँ l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक














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