top of page
खोज करे

अपनों का ग़म

अचानक टूट के, बिलख के रो पड़ना,

भरे बाज़ार में भी वीराना सा लगना l

जिसके बिना अब, कोई अपना नहीं लगता,

जिसके बिना हर सुख, बेमानी सा लगता l


वो तो चला गया हमेशा के लिए,

फ़िर ये टीज, क्यों उठती रहती है l

हर रंग शायद उससे ही था,

इसीलिए अब सब, बेरंगा सा लगता है l


थीं तुमसे बहुत शिकायतें, अब भी हैं,

थीं तुमसे बहुत शिकायतें, अब भी हैं,

शिकवों को लगके गले, है मिटाया जाता,

पर मुंह मोड़ के यूँ , न कभी, है जाया जाता l


अगर एक मौक़ा और मिले,

मिटा के ख़ुद को, तुम्हें आबाद कर दूँ,

तुम आजाओ वापस चाहे मैं विदा हो जाऊँ l


विवेक गोपाल कृष्ण पाठक

 
 
 

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें
पशु कौन?

वो होते हिंसक, सुरक्षा और भोजन के लिए, और हम… स्वाद के लिए, उनके शीश काटते जाते l वो होते काम-रत, ऋतु आने पर ही, और हम… सारा जीवन, काम में ही लुटाते जाते l वो जीते गोद में प्रकृति की, जीवन भर, और हम…

 
 
 
याद की जायदाद

कर-कर के देख लिया, हर क़रम,-2 कमा के देख लिया, गँवा के देख लिया, और पापों से तो सना हूँ मैं,-2 कुछ पुण्य, कमा के भी देख लिया l सब.. सब.. सब आ के चला जाता है, सब आ के चला जाता है l एक ‘उसकी याद’ है, क

 
 
 
श्मशान

कहते लोग, जिसे भयानक और अशुद्ध, जहाँ जाने के नाम से भी, हो जाती सांसें बद्ध l होते सभी बंधन जहाँ राख़, टूट जाती वृक्ष से ज्यों साख़, है यह वह स्थान, जहाँ माया भी है निषिद्ध l मरके तो सबको जाना है वहाँ

 
 
 

टिप्पणियां


bottom of page