top of page
खोज करे

अब कुछ अलग है

वही दुनिया है, वही मैं भी हूँ, पर फिर भी,

पहले से सबकुछ अलग है l

दौलत है, शोहरत है, पाने को,

फिर भी ख्वाइश-ए-दिल, अब कुछ अलग है l

जुड़ा तो हूँ ज़माने से, पर मरासिम-ए-ज़माना,

अब कुछ अलग है l

तन्हा भी हूँ, हूँ भीड़ में भी, पर एहसास-ए-तन्हाई,

अब कुछ अलग है l

सुना तो था, कि तुझको पाना ख़ुद को खोना है,

पर ख़ुद से जुदाई का सफ़र और इतना ख़ुशनुमा,

ये राह और ऐसा रहगुज़र,

मंज़िल की चाह , अब कुछ अलग है l


विवेक गोपाल कृष्ण पाठक


 
 
 

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें
पशु कौन?

वो होते हिंसक, सुरक्षा और भोजन के लिए, और हम… स्वाद के लिए, उनके शीश काटते जाते l वो होते काम-रत, ऋतु आने पर ही, और हम… सारा जीवन, काम में ही लुटाते जाते l वो जीते गोद में प्रकृति की, जीवन भर, और हम…

 
 
 
याद की जायदाद

कर-कर के देख लिया, हर क़रम,-2 कमा के देख लिया, गँवा के देख लिया, और पापों से तो सना हूँ मैं,-2 कुछ पुण्य, कमा के भी देख लिया l सब.. सब.. सब आ के चला जाता है, सब आ के चला जाता है l एक ‘उसकी याद’ है, क

 
 
 
श्मशान

कहते लोग, जिसे भयानक और अशुद्ध, जहाँ जाने के नाम से भी, हो जाती सांसें बद्ध l होते सभी बंधन जहाँ राख़, टूट जाती वृक्ष से ज्यों साख़, है यह वह स्थान, जहाँ माया भी है निषिद्ध l मरके तो सबको जाना है वहाँ

 
 
 

टिप्पणियां


bottom of page