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इल्म है मुझे

ये जो लोग, रिश्ते-नातों,

दौलत-ओ-शौहरत और तमाम दुनिया को,

जीने का सामान समझ रहे हैं l


नादान हैं, अपनी ही क़ब्र, ख़ुद खोद रहे हैं l

नादान हैं, अपनी ही क़ब्र, ख़ुद खोद रहे हैं l


बहुत हुआ इन सब के लिए, ठहरना अब,


की जिधर निकलो, ये तमाशे आम हो रहे हैं l

की जिधर निकलो, ये तमाशे आम हो रहे हैं l


अरे!! असली परेशानी तो ये है, कि इल्म है मुझे,

फिर शिकायत किससे करूँ,


कि अपने किए के ही ईनाम मिल रहे हैं l

कि अपने किए के ही ईनाम मिल रहे हैं l


विवेक गोपाल कृष्ण पाठक



 
 
 

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