इल्म है मुझे
- Vivek Pathak

- 13 अक्टू॰
- 1 मिनट पठन
ये जो लोग, रिश्ते-नातों,
दौलत-ओ-शौहरत और तमाम दुनिया को,
जीने का सामान समझ रहे हैं l
नादान हैं, अपनी ही क़ब्र, ख़ुद खोद रहे हैं l
नादान हैं, अपनी ही क़ब्र, ख़ुद खोद रहे हैं l
बहुत हुआ इन सब के लिए, ठहरना अब,
की जिधर निकलो, ये तमाशे आम हो रहे हैं l
की जिधर निकलो, ये तमाशे आम हो रहे हैं l
अरे!! असली परेशानी तो ये है, कि इल्म है मुझे,
फिर शिकायत किससे करूँ,
कि अपने किए के ही ईनाम मिल रहे हैं l
कि अपने किए के ही ईनाम मिल रहे हैं l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक














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