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करुणा

अपडेट करने की तारीख: 31 अग॰ 2022

तन पे वो ज़ख्मों के नक्श, उनसे बहता खून।

सर्द रातों में सोने का तो क्या? रोटी का न हो ठिकाना

और उसपे तन्हा तन्हा जीने को मजबूर।


नंगे पैर, आँख में आंसू , सुबह से भूखा है शायद,

खेल-कूद पढ़ाई से दूर, माँ बाप का दुलार तो क्या?

रोटी के लिये सड़क पर मजबूर है शायद।

उठ गया साया बेवक़्त जरूर, इसके भी सर से है शायद।


क्या मांगूँ तुझसे खुद के लिए अब, कि बे सहारे को सहारा, निराश को आशा मिले।

की हर बाग़ को माली, हर बचपन को माँ बाप की छांव मिले।

कि सुख हो या दुख, जीवन हो या मरण, सफलता हो या हार मिले।

पर हर हृदय तेरे ही बोध के जल से सरोबार मिले।


विवेक गोपाल कृष्ण पाठक

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