जान रहा हूँ जग को
- Vivek Pathak

- 25 जन॰
- 1 मिनट पठन
अपडेट करने की तारीख: 14 फ़र॰
जितना जान रहा हूँ जग को, उतने बंधन छूट रहे l
जितना जान रहा हूँ जग को, उतने बंधन छूट रहे l
पाना-खोना, जीना-मरना, पाना-खोना, जीना-मरना,
सब गुब्बारे फूट रहे l
कब छूटूँगा जग कोल्हू से, कब छूटूँगा जग कोल्हू से,
चलते चलते पग टूट रहे l
हो रहा अंदर से ख़ाली, हो रहा अंदर से ख़ाली,
सब भ्रम मेरे टूट रहे l
जितना जान रहा हूँ जाग को, उतने बंधन छूट रहे l
तेरी साँस तेरा मैं, तेरी साँस तेरा मैं,
मेरा कुछ उपयोग कर l
थोड़े आँसू पौंछ सकूँ, ख़ुद के चाहे सूख रहे l
थोड़े आँसू पौंछ सकूँ, ख़ुद के चाहे सूख रहे l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक














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