top of page
खोज करे

परिणिती

फिरता रहता था अँधेरी राहों पर, 

भटकता था अनजान शहरों में l

और पाने की चाह में, 

न जाने कितना ख़ुद को खोया हूँ, 

थक गया हूँ, चूर हूँ, न जाने आख़िरी बार, 

कब चैन से सोया हूँ l


जेब में है पैसा, पर ऊँचे महलों में अब वो रस नहीं,

अपना छोटा सा घर, अब माँ की गोद सा लगता है l


बदले में क्या मिलेगा किसी से, 

करने से पहले अब सोचता नहीं l

क्यों परिंदे को पिंजरे में रखूँ , 

बारिश-ओ-धूप बाग़ की, अब सुहानी लगती है l


वो कच्चा आम, वो खुली हवा में, लंबी न सही, पर बेफ़िक्र उड़ान, अब अच्छी लगती है l


विवेक गोपाल कृष्ण पाठक

 
 
 

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें
पशु कौन?

वो होते हिंसक, सुरक्षा और भोजन के लिए, और हम… स्वाद के लिए, उनके शीश काटते जाते l वो होते काम-रत, ऋतु आने पर ही, और हम… सारा जीवन, काम में ही लुटाते जाते l वो जीते गोद में प्रकृति की, जीवन भर, और हम…

 
 
 
याद की जायदाद

कर-कर के देख लिया, हर क़रम,-2 कमा के देख लिया, गँवा के देख लिया, और पापों से तो सना हूँ मैं,-2 कुछ पुण्य, कमा के भी देख लिया l सब.. सब.. सब आ के चला जाता है, सब आ के चला जाता है l एक ‘उसकी याद’ है, क

 
 
 
श्मशान

कहते लोग, जिसे भयानक और अशुद्ध, जहाँ जाने के नाम से भी, हो जाती सांसें बद्ध l होते सभी बंधन जहाँ राख़, टूट जाती वृक्ष से ज्यों साख़, है यह वह स्थान, जहाँ माया भी है निषिद्ध l मरके तो सबको जाना है वहाँ

 
 
 

टिप्पणियां


bottom of page