top of page
खोज करे

फंसे रहना कब तक

फंसे रहना कब तक

खुशी के कुछ पलों की दौड़ में,

दूसरोँ से आगे बढ़ जाने की होड़ में,

ख़ुद को साबित करने के जोड़ में,


फंसे रहना कब तक

अपनों से छूट जाने के मोड पर,

सपनों के टूट जाने की भोर पर,

सब कुछ खो देने के बोध पर,


फंसे रहना कब तक

कब तक फंसे रहना भोग निद्रा भय और मैथुन में,

कब तक फंसे रहना जीवन को अनदेखा करते रहने में,


कब तक डूबे रहना परेशानियों के जल में,

खुद को खो देना ढूंढते समस्याओं के हल में,

एकदम रुक जाने के पल में,

भी अगर नहीं समझा तो यूँही बहजाएगा फिर गंगा जल में।


विवेक गोपाल कृष्ण पाठक

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें
स्वयं के सत्य का अनुभव

बहुत कष्ट हैं इस दुनियाँ में, किसी के पास कम या ज्यादा नहीं, हर एक के पास है अपना अपना, देखो जब भी मजबूर या लाचार को, बाँट लो जो भी बाँट...

 
 
 
'सबब ए जिन्दगी'

है दुःख बहुत, ग़मगीन सारे हैं। कुछ हैं परेशां साथ किसी के, और कुछ बे सहारे हैं। हैं सुखी अपनों के साथ कमी में भी कुछ-2, और कुछ महलों में...

 
 
 
करुणा

तन पे वो ज़ख्मों के नक्श, उनसे बहता खून। सर्द रातों में सोने का तो क्या? रोटी का न हो ठिकाना और उसपे तन्हा तन्हा जीने को मजबूर। नंगे पैर,...

 
 
 

टिप्पणियां


bottom of page