रिश्ते
- Vivek Pathak

- 26 अग॰
- 1 मिनट पठन
जो बच्चों को विदेश भेज इतराते हैं,
अक्सर जीवन अकेले में बिताते पाए जाते हैं l
पैसे तो हर महीने आ जाते हैं,
पर होली-दिवाली पे, घर-बार सूने रह जाते हैं ।
मेरा बेटा- मेरी बेटी, थकते नहीं, डींगें हाँकते जाते हैं,
पर रिश्तों के सुख के लिए,
अनजानों से उम्मीदें लगाते पाए जाते हैं l
जो बच्चों को विदेश भेज इतराते हैं,
अक्सर पड़ोसियों के कंधों पर श्मशान जाते हैं l
ज़माने की दौड़ में, कमाने की होड़ में,
थोड़े पीछे रह जाओ, तो भी चलता है l
पर जिनके लिए दौड़े, वो पीछे रह जाएँ,
रिश्ते, ऐसे तो निभाये नहीं जाते l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक














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