top of page
खोज करे

वृक्ष की अभिलाषा

उखड़ भी गया, अपने कर्मों की बाढ़ से तो भी,

धरा पर गिर, बीज से फिर वृक्ष हो जाऊँगा l


न मिली सरिता, सागर तक पहुंचने के लिए तो भी, टिका रहूँगा आँधी, तूफ़ान, अकालों में, करके अपनी जड़ों को गहरा l


अपने बीज़ से, 'वन' बना सागर को रिझाऊँगा,

बूँदों सा एक दिन उसको, ख़ुद पर बरसाऊँगा l


वृक्ष हूँ, धरा से जुड़कर ही,

एक दिन गगन को पा जाऊँगा l


विवेक गोपाल कृष्ण पाठक

 
 
 

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें
पशु कौन?

वो होते हिंसक, सुरक्षा और भोजन के लिए, और हम… स्वाद के लिए, उनके शीश काटते जाते l वो होते काम-रत, ऋतु आने पर ही, और हम… सारा जीवन, काम में ही लुटाते जाते l वो जीते गोद में प्रकृति की, जीवन भर, और हम…

 
 
 
याद की जायदाद

कर-कर के देख लिया, हर क़रम,-2 कमा के देख लिया, गँवा के देख लिया, और पापों से तो सना हूँ मैं,-2 कुछ पुण्य, कमा के भी देख लिया l सब.. सब.. सब आ के चला जाता है, सब आ के चला जाता है l एक ‘उसकी याद’ है, क

 
 
 
श्मशान

कहते लोग, जिसे भयानक और अशुद्ध, जहाँ जाने के नाम से भी, हो जाती सांसें बद्ध l होते सभी बंधन जहाँ राख़, टूट जाती वृक्ष से ज्यों साख़, है यह वह स्थान, जहाँ माया भी है निषिद्ध l मरके तो सबको जाना है वहाँ

 
 
 

टिप्पणियां


bottom of page