स्वीकार और सफ़लता
- Vivek Pathak

- 26 नव॰ 2024
- 1 मिनट पठन
मुझमें जो धार है, नहीं होती,
स्वजनित कुकर्मों के पाषाणों से, यदि न रगड़ा जाता l
मुझमें जो आभा है, नहीं होती,
स्वज्वलित ज्वाला से, यदि न झुलसा जाता l
मुझमें जो ज्ञान है, नहीं होता,
दुःनिर्णयों के जाल में, यदि न उलझा होता l
मुझमें जो सुगंध है, नहीं होती,
स्वकृत्य पापों की सड़न में, यदि न घुटा होता l
जो भी सार और योग्यता है मुझमें, नहीं होती,
स्वकर्म के परिणामों को, पूर्णतः,
यदि न स्वीकारा होता l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक














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