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स्वीकार और सफ़लता

मुझमें जो धार है, नहीं होती,

स्वजनित कुकर्मों के पाषाणों से, यदि न रगड़ा जाता l


मुझमें जो आभा है, नहीं होती,

स्वज्वलित ज्वाला से, यदि न झुलसा जाता l


मुझमें जो ज्ञान है, नहीं होता,

दुःनिर्णयों के जाल में, यदि न उलझा होता l


मुझमें जो सुगंध है, नहीं होती,

स्वकृत्य पापों की सड़न में, यदि न घुटा होता l


जो भी सार और योग्यता है मुझमें, नहीं होती,

स्वकर्म के परिणामों को, पूर्णतः,

यदि न स्वीकारा होता l


विवेक गोपाल कृष्ण पाठक


 
 
 

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